भीष्म अष्टमी 19 फरवरी को है। प्रति वर्ष भीष्म अष्टमी माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को मनायी जाती है। हिन्दू धर्म में इसे बेहद ही भाग्यशाली दिन माना जाता है। इस कारण लोग इस दिन भीष्म अष्टमी का व्रत रखते हैं। यह तिथि महाभारत के महान पात्र भीष्म पितामह को समर्पित है। मान्यता है कि इसी दिन भीष्म पितामह ने अपने प्राणों का त्याग किया था। आइए जानते हैं भीष्म अष्टमी का मुहूर्त, व्रत विधि और कथा।
भीष्म अष्टमी का मुहूर्त
माघ शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि प्रारंभ - 19 फरवरी, शुक्रवार को सुबह 10 बजकर 58 मिनट से
माघ शुक्ल पक्ष अष्टमी तिथि समापन - 20 फरवरी, शनिवार दोपहर 01 बजकर 31 मिनट तक
भीष्म अष्टमी व्रत विधि
सुबह जल्दी उठकर किसी पवित्र नदी या सरोवर नें स्नान करें। यदि संभव न हो तो घर पर ही स्नान करें। स्नान के बाद हाथ में तिल, जल आदि लेकर आदि लेकर यदि धारण करते हैं तो जनेउ को दाएं कंधे पर लेकर दक्षिणाभिमुख होकर तर्पण करना चाहिए। तर्पण के समय इस मंत्र का जाप करें-
वैयाघ्रपदगोत्राय सांकृत्यप्रवराय च।
गंगापुत्राय भीष्माय सर्वदा ब्रह्मचारिणे।।
भीष्म: शान्तनवो वीर: सत्यवादी जितेन्द्रिय:।
आभिरभिद्रवाप्नोतु पुत्रपौत्रोचितां क्रियाम्।।
विधि पूर्वक तर्पण करने के बाद पुन: जनेऊ को बाएं कंधे पर ले लें और गंगापुत्र भीष्म को अर्घ्य दें।
भीष्म अष्टमी तिथि का महत्व
धार्मिक मान्यता के अनुसार, भीष्म अष्टमी का दिन पितृ दोष को समाप्त करने का उत्तम दिन माना जाता है। साथ ही संतान प्राप्ति के लिए यह व्रत किया जाता है। जो दंपत्ति संतानविहिन होते हैं उन्हें इस व्रत को करने से लाभ मिलता है। यह भी माना जाता है कि इस दिन भीष्म पितामह के दिव्य आशीर्वाद से संतानविहिन दंपत्तियों को अच्छे चरित्र और आज्ञाकारिता संतान की प्राप्ति होती है।
भीष्म अष्टमी व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, भीष्म देवी गंगा और राजा शांतनु के आठवें पुत्र थे जिनका मूल नाम देवव्रत था जो उनके जन्म के समय दिया गया था। अपने पिता को खुश करने के लिए देवव्रत ने जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन किया। देवव्रत को मुख्य रूप से मां गंगा द्वारा पोषित किया गया था और बाद में महर्षि परशुराम को शास्त्र विद्या प्राप्त करने के लिए भेजा गया था। उन्होंने शुक्राचार्य के मार्गदर्शन में महान युद्ध कौशल और सीख हासिल की जो उन्हें अजेय बनाती थी।

शिक्षा पूरी करने के बाद, देवी गंगा देवव्रत को अपने पिता, राजा शांतनु के पास लायीं और फिर उन्हें हस्तिनापुर का राजकुमार घोषित किया गया। इस दौरान, राजा शांतनु को सत्यवती नाम की एक महिला से प्रेम हो गया और वह उससे विवाह करना चाहते थे। लेकिन सत्यवती के पिता ने एक शर्त पर गठबंधन के लिए सहमति व्यक्त की। शर्त यह थी कि राजा शांतनु और सत्यवती की संतानें ही भविष्य में हस्तिनापुर राज्य पर शासन करेंगी।

स्थिति को देखते हुए, देवव्रत ने अपने पिता के लिए अपना राज्य छोड़ दिया और जीवन भर कुंवारे रहने का संकल्प लिया। ऐसे संकल्प और बलिदान के कारण, देवव्रत भीष्म नाम से पूजनीय हुए। उनकी प्रतिज्ञा को भीष्म प्रतिज्ञा कहा गया। यह सब देखकर, राजा शांतनु भीष्म से बहुत प्रसन्न हुए और इस प्रकार उन्होंने भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। अपने जीवनकाल के दौरान, भीष्म को भीष्म पितामह के रूप में बहुत सम्मान मिला।

महाभारत के युद्ध में, वे कौरवों के साथ खड़े थे और उन्होंने उनका पूरा समर्थन किया। भीष्म पितामह ने शिखंडी के साथ युद्ध नहीं करने और उसके खिलाफ किसी भी प्रकार का हथियार न चलाने का संकल्प लिया था। अर्जुन ने शिखंडी के पीछे खड़े होकर भीष्म पर हमला किया और इसलिए भीष्म घायल होकर बाणों की शय्या पर गिर पड़े।

हिंदू मान्यताओं के अनुसार, यह माना जाता है कि जो व्यक्ति उत्तरायण के शुभ दिन पर अपना शरीर त्यागता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है, इसलिए उन्होंने कई दिनों तक बाणों की शैय्या पर प्रतीक्षा की और अंत में अपने शरीर को छोड़ दिया। उत्तरायण अब भीष्म अष्टमी के रूप में मनाया जाता है।