निर्विशेषवादी के लिए ब्रह्मभूत अवस्था अर्थात ब्रह्म से तदाकार होना परम लक्ष्म होता है। लेकिन साकारवादी शुद्धभक्त को इससे भी आगे शुद्ध भक्ति में प्रवृत्त होना होता है। इसका अर्थ हुआ जो भगवद्भक्ति में रत है, वह पहले ही मुक्ति की अवस्था, जिसे ब्रह्मभूत या ब्रह्म से तादात्म्य कहते हैं, प्राप्त कर चुका होता है। परमेर या परब्रह्म से तदाकार हुए बिना कोई उनकी सेवा नहीं कर सकता। परम ज्ञान होने पर सेव्य तथा सेवक में कोई अन्तर नहीं कर सकता, फिर भी उच्चतर आध्यात्मिक दृष्टि से अन्तर रहता ही है।  
देहात्मबुद्धि  के अन्तर्गत, जब कोई इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करता है, तो दुख का भागी होता है, लेकिन परम जगत में शुद्ध भक्ति में रत रहने पर कोई दुख नहीं रह जाता। चूंकि ईश्वर पूर्ण है, अतएव ईश्वर से सेवारत जीव भी कृष्णभावना में रहकर अपने में पूर्ण रहता है। वह ऐसी नदी के तुल्य है, जिसके जल की सारी गंदगी साफ कर दी गई है। चूंकि शुद्ध भक्त में कृष्ण के अतिरिक्त कोई विचार ही नहीं उठते, अतएव वह प्रसन्न रहता है।  
वह न किसी भौतिक क्षति पर शोक करता है, न किसी लाभ की आकांक्षा करता है, क्योंकि वह भगवद् भक्ति से पूर्ण होता है। वह भौतिक जगत में न किसी को अपने से उच्च देखता है और न निम्न। ये उच्च तथा निम्न पद क्षणभंगुर है और भक्त को क्षणभंगुर प्राकटय़ या तिरोधान से कुछ लेना-देना नहीं रहता। उसके लिए पत्थर तथा सोना बराबर होते हैं।  
यह ब्रह्मभूत अवस्था है, जिसे शुद्ध भक्त सरलता से प्राप्त कर लेता है। उस अवस्था में स्वर्ग प्राप्त करने का विचार मृगतृष्णा और इन्द्रियां विषदंतविहीन सर्प की भांति प्रतीत होती हैं। जिस प्रकार विषदंतविहीन सर्प से कोई भय नहीं रह जाता उसी प्रकार स्वत: संयमित इन्द्रियों से कोई भय नहीं रह जाता। भक्त के लिए समग्र जगत वैपुंठ तुल्य होता है। ब्रह्मांड का महान से महानतम पुरुष भी भक्त के लिए क्षुद्र चींटी से अधिक महत्वपूर्ण नहीं होता।